काश की कोई करामात होती,विधाता की इनायत होती,
हम फिर से बच्चे बन जाते , जी भर के शरारत होती।
होती आडंबर हीन ज़िंदगी, होते वो अमिया के पेड़ ,
दिन बीतती खेलों में, रात अबूझ सपनों
में।
बिना फिकर की ज़िंदगी होती,जी भर के
शरारत होती
ननिहाल के होते हम सम्राट, दादा दादी पर जमाते ठाठ,
ओह्ह , कितने अबोध थे हम , स्कूल को जेल समझते थे।
अपनी चलेगी होंगे जब बड़े, ऐसी भ्रम में रहते थे ।
काश कि आगे के सर्कस का पहले से पता होता,
बड़े होने का आशीर्वाद हम न लेते, वो क़चड़े के ढेर मे पड़ा होता
हे ईश्वर,
ये सपने ले लो, ये रुपए ले लो, ये घनी जवानी भी ले लो ,
ना सको पुरी गर तो ,थोड़ी सी ही बचपन दे दो ।
नहीं चाहिए मखमली गद्दे, माँ का गोद भला था,
इस सरकारी बंगले से वो दो कित्ते का मकान कह़ी बड़ा था।
हाय, गए दिन वो बीत, जब अपनी ही चलती थी,
बिना ऊबे ही माँ लगभग जिद पुरी करती थी ।
लगभग बोला ........ क्यूकि कुछ अरमान बड़े थे,
पिताजी के जेबी में कहाँ इतने पैसे पड़े थे ।
अब पास कुछ पैसे तो हैं सही,
पर सारे अरमान जैसे गुम हो गए कहीं ।
आज ज़िंदगी को अपना कहना भी बेमानी है ,
सौ बात की एक बात, पिंजर बंद तोते की कहानी है।
कहाँ बैठना, कब क्या करना, अब दूजा तय करता है,
अपना भी कुछ है वजूद, अब मन यह भ्रम नहीं रखता है।
भूल गया कब हँसा था खुल के,
चेहरे के हर भाव है, बनावट के।
बचपन थी इक पेंसिल सी , ग़लतियाँ जाती
थी मिट ,
अब की भूल लकीर पत्थर कि , अमर अमिट
, अमर अमिट।
-:जिंदगी समझने कि कोशिश करता एक अबोध:- व्योमकेश